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वि॒द्युन्न या पत॑न्ती॒ दवि॑द्यो॒द्भर॑न्ती मे॒ अप्या॒ काम्या॑नि । जनि॑ष्टो अ॒पो नर्य॒: सुजा॑त॒: प्रोर्वशी॑ तिरत दी॒र्घमायु॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

vidyun na yā patantī davidyod bharantī me apyā kāmyāni | janiṣṭo apo naryaḥ sujātaḥ prorvaśī tirata dīrgham āyuḥ ||

पद पाठ

वि॒ऽद्युत् । न । या । पत॑न्ती । दवि॑द्योत् । भर॑न्ती । मे॒ । अप्या॑ । काम्या॑नि । जनि॑ष्टो॒ इति॑ । अ॒पः । नर्यः॑ । सुऽजा॑तः । प्र । उ॒र्वशी॑ । ति॒र॒त॒ । दी॒र्घम् । आयुः॑ ॥ १०.९५.१०

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:95» मन्त्र:10 | अष्टक:8» अध्याय:5» वर्ग:2» मन्त्र:5 | मण्डल:10» अनुवाक:8» मन्त्र:10


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (या-उर्वशी) जो बहुत सुख भोगों को भोगती-भुगाती हुई प्राप्त होती है, वह बहुत कमनीय स्त्री या प्रजा (विद्युत्-न पतन्ती) विद्युत् की भाँति सुखवृष्टि गिराती है (दविद्योत्) जो स्वगुणों से चमकती है घर में या राष्ट्र में (मे) मेरे लिए-मुझ गृहपति या राष्ट्रपति के लिए (अप्या काम्यानि भरन्ती) आप्तव्य या कर्मसाध्य कमनीय सुखों को धारण करती हुई वर्त्तमान है (अपः-नर्यः-सुजातः-जनिष्ट) मानव के आन्तरिक जलों में नरहित नर के लिए उपयुक्त शुक्र-धातु सुप्रसिद्ध पुत्ररूप में रस के अन्दर उत्पन्न होता है तथा जल से अभिषेककाल में नरों के लिए हितकर पुत्रसमान नरक दुःख से त्राण करनेवाला राजा सुप्रसिद्ध युवराज हो जाता है, (उर्वशी दीर्घमायुः-प्रतिरत) वह बहुकमनीय स्त्री या प्रजा गृहपति या प्रजापति की आयु को बढ़ाती है सहयोग, संयम, सदाचार द्वारा स्वयं रहती, मुझे रखती हुई ॥१०॥
भावार्थभाषाः - आदर्श पत्नी बहुत सुख भोगों को भोगने और भोगानेवाली होती है। घर में सुख की वृष्टि करती है और अपने गुणों से प्रकाशमान होती है, ऐसी पत्नी पति के कर्म द्वारा प्राप्त होती है, मानव के अन्दर जो जीवनरस है, उससे पुत्र की प्राप्ति कराती है। अच्छी पत्नी परिवार में दीर्घायु का विस्तार करती है एवं अच्छी प्रजा सुख भोगने और भोगानेवाली होती है, राष्ट्र में सुख का संचार करती है, गुणों से प्रकाशमान होती है, ऐसी प्रजा राजा के अच्छे शासन से बनती है। योग्य राजा प्रजा की ओर से अभिषिक्त किया जाता है, तब प्रजा को दुःखों से बचाता है, अच्छी प्रजा भी राष्ट्र में दीर्घायु का विस्तार करती है ॥१०॥
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (या-उर्वशी) या बहुसुखभोगमश्नुते आशयति च सा बहु कमनीया स्वस्त्री प्रजा वा (विद्युत्-न पतन्ती) विद्युदिव सुखवृष्टिं पातयन्ती “अन्तर्गतणिजर्थः” (दविद्योत्) स्वगुणैर्गृहे राष्ट्रे वा विद्योतयति (मे) मह्यं पुरुरवसे गृहपतये राष्ट्रपतये वा (अप्या काम्यानि भरन्ती) आप्तव्यानि कर्मसाध्यानि वा कमनीयसुखानि धारयन्ती (अपः-नर्यः-सुजातः-जनिष्ट) ‘अप्सु सप्तम्यर्थे द्वितीया’ नरहितः शुक्रः सुप्रसिद्धो जायते “वेत्थ यदा पञ्चभ्यामाहुतावापः पुरुषवचसो भवन्ति” [छान्दो० ५।३।३] जलेनाभिषेककाले नरेभ्यो हितः पुत्रः पुत्रवद्वा पुं नरकं तस्मात् त्राता राजा सुप्रसिद्धो जायते (उर्वशी दीर्घम्-आयुः प्र तिरत) सा स्त्री प्रजा वा पत्युर्दीर्घमायुर्वर्धयति ॥१०॥